गुरुवार, 16 जुलाई 2009

हम तो पड़ोसी से दोस्ती करने चले


हम तो पड़ोसी से दोस्ती करने चले।
        मगर ले छुरा पड़ गया वो हमारे गले॥
कारगिल सीमा लांघी उसने घात से
         हम को लोग ये दिखते नहीं हैं भले॥

पिछली लड़ाइयों से कुछ सीखे नहीं
         तभी रह गए इस बार भी हाथ मले॥
इंसानियत इन्हें कभी रास न आयी
           ये उनसे खुश रहे जिनसे गए छले॥

ये आदी हुए इंसानी खून बहाने के
           हम शान्ति चाहें इस गगन के तले॥
रह रह जोर लगाना इनकी आदत
           मगर इन के इरादे कभी नहीं फले॥

दम नहीं है फ़िर भी फडफडा रहे
           दुनिया तबाह करें इनका बस चले॥

फिरते बड़े उतावले युद्ध के लिए
           हम तो टालना चाहें जब तक टले॥

दूसरों के घर में घुसना ठीक नहीं
            पता नहीं ये कैसे संस्कारों में पले॥
क्यों नहीं आता इनकी समझ में
            खेलें आग से मगर कई बार जले॥

10 टिप्‍पणियां:

  1. इस बेहतरीन और लाजवाब रचना के लिए बधाई! बहुत अच्छी लगी आपकी ये रचना!

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  2. भला क्यों नहीं आता इनकी समझ में
    आग से खेलना चाहें पर कई बार जले।
    ये तो दिलजले है --- इनको जलने की आदत है.
    बहुत सुन्दर स्वाभिमानी रचना

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  3. अब आपको नज़र लग जाने की संभावनाएँ बढ़ रहीं हैं तेज़ी से। ज़रा सम्भालिए और इतनी बेहतरीन रचनाएँ लिखना बंद कीजिए। हा हा।
    दम नहीं है फ़िर भी फड फडा रहे बहुत
    दुनिया करें तबाह गर इनका बस चले।
    प्रेम भाई लाजवाब कह गए आप।

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  4. बहुत बेहतरीन निकाले हैं खजाने से...


    भला क्यों नहीं आता इनकी समझ में
    आग से खेलना चाहें पर कई बार जले।


    वाह!

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  5. इस बेहतरीन और लाजवाब रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  6. दूसरों के घर घुसना बिल्कुल ठीक नहीं
    भई पता नहीं ये किन संस्कारों में पले।

    क्या खूब कहा!!!!!!!!

    बधाई.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  7. पड़ोसी से घात-प्रतिघात पर मुखरित स्वर।
    बधाई!

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  8. bharat ki prem se gale milane ko wo hamari kamjori samjh rahe hai..
    bewkuf hai wo..
    ek baar dekh chuke hai kargil me aur bhi dekhana chahate hai..

    dikha denge ham bhi..
    badhiya bhent aapki..dhanywaad

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