सोलह श्रंगार करके खुदको सजाया
उसके काबिल मैंने खुदको बनाया
कहके बेदर्दी न आया
पागल मुझको बनाया
दो दिन से आंखों की नीदें उड़ी थी
मिलने की उस से उम्मीदें जुड़ी थी
उम्मीदों पे पानी फिराया
पागल मुझको बनाया
मन की बात मेंरे मन में ही रह गई
तन की आग मेंरे तन में ही रह गई
तन-मन उसने जलाया
पागल मुझको बनाया
परदेश जा के परदेशी हो गया वो
जाने किसके चक्कर में खो गया वो
जो ऐसे मुझको भुलाया
पागल मुझको बनाया
वाह वाह प्रेम साहब, क्या ग़ज़ब कहा !
जवाब देंहटाएंमन की बात मेरी मन में ही रह गई
तन की आग मेरी तन में ही रह गई
बहुत सुंदर रचना ... बधाई।
जवाब देंहटाएं"परदेश जाके परदेशी हो गया वो
जवाब देंहटाएंजाने किसके चक्कर में खो गया वो
जो मुझको ऐसे भुलाया
पागल मुझको बनाया"
प्रेम जी!
पागल न बने।
1 अपैल बीत गयी है।
अब आप भी उसका ख्याल अपने मन से निकाल ही दें।
वन-वे पर बहादुरी से चलने के लिए धन्यवाद।
kya baat hai prem ji
जवाब देंहटाएंaaj to likhne ka style alag hai
prem ka ek alag hi andaz prastut kar diya.
waah waah