जिस दोहे ने मुझे कवि बनाया । आज मैं यह दोहा आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह २४/९/१९७६ की बात है जब मैंने पहली बार कवि सम्मलेन देखा व सुना था । इस दोहे ने मेरा जीवन ही बदल दिया । भानु प्रताप बुंदेला जी ने यह दोहा सुनाया था।
एक पनिहारिन कुए पर पानी भरने जाती है और दोहा वहीं से शुरू होता है।
पानी ऐंचत झुकी कुआ में,
झलके अंग अनोखे।
मानो जमुना जी में हों,
गुम्बद ताजमहल के ।
आप सब भी इस दोहे का आनंद लें.धन्यवाद !!
भाई साहेब ये दोहा तो बड़ा ही आध्यात्मिक प्रतीत होता है........
जवाब देंहटाएंआप सन्त बनते बनते कवि कैसे बन गए ?
बहुत सुन्दर बधाई
जवाब देंहटाएंbahut badhiya hai.
जवाब देंहटाएंWahh...wahh...Sharma ji!
जवाब देंहटाएंbahut badhiya hai.
Idd mubarak.
Navratra kee shubhkaamnayen.
वाह वाह प्रेम भाई। देखिए यह है अदब का हुस्न।
जवाब देंहटाएंलगे रहो भाई!
जवाब देंहटाएंबूढ़े दिलों की जवान कविता के लिए बधायी हो।
khoobsoorat rachna
जवाब देंहटाएंअद्भुत अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंखत्री जी ने मेरे मूंह की बात छीन ली.
जवाब देंहटाएंवैसे आजकल के संतों की ही वाणी है.
वाह . क्या रस है इस दोहे में .......... कवी की संदर कल्पना
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