बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

पाने की चाह में खोया बहुत हूँ मैं


पाने की चाह में खोया बहुत हूँ मैं।
     हंसने की चाह में रोया बहुत हूँ मैं॥ 

सागर में मोती हमें भी मिल जायेगे
  इसी लिए खुदको डुबोया बहुत हूँ मैं॥ 

इंसानियत कहीं बिखर ही न जाये
     प्यार में सबको पिरोया बहुत हूँ मैं॥ 

कैसे कहूँ कैसे सही है उसकी जुदाई
     इन आँखों को भिगोया बहुत हूँ मैं॥ 

महक उठे जहाँ फूलों की खुशबू से
    फूलों को सचमुच बोया बहुत हूँ मैं॥ 

ठुकरा करके वो कहीं न चली जाये
  इस लिए नखरों को ढोया बहुत हूँ मैं॥ 

3 टिप्‍पणियां:

  1. ठुकरा करके वो कहीं न चली जाये

    इसलिए नखरों को ढोया बहुत हूँ मैं।
    शानदार गजल

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  2. कैसे कहूँ कैसे सही है उसकी जुदाई
    इन आँखों को भिगोया बहुत हूँ मैं।
    "ये शेर सबसे बेहतर है........भीगी ऑंखें क्या नही कहती उसकी जुदाई मे ......जुबान खामोश हो जाती है मगर .....बेजुबान आंसू .....एक अफसाना लिख जाते हैं......"

    Regards

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