उदासियां
दिये हैं प्यार ने इस दिल को अब तो दाग़ कितने।
कि अब मिटेंगे न, चाहे खिले हों बाग़ कितने।
उदासी के अँधेरों ने हमें घेरा है इस तरह कि
न होगा कुछ भी, जलते रहें अब चिराग़ कितने
सफ़र में हार कर हम शांत ही बैठे आखिर में।
चटक कर टूट जाते हैं ये अब दिमाग़ कितने।
ये दो दिल साथ अब रहने वाले देर तक नहीं।
भले ही अलापे कोई मधुर प्रेम-राग कितने।
नहीं है प्यार का कोई भी सही इक निश्चित सूत्र।
जो टूटे बीच में ही जैसे बनके उठे झाग़ कितने।
-प्रेम फर्रुखाबादी